ओपिनियन- प्रणय प्रियंवद
बिहार में कोरोना महामारी घोषित है। स्थिति भयावह है। इस सब से अलग चुनाव आयोग की अब तक की तैयारी के अनुसार साफ है विधान सभा चुनाव समय से होंगे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 7 सितंबर को साढ़े ग्यारह बजे जनता से सीधे संवाद करेंगे।
नीतीश कुमार की सबसे बड़ी चुनौती कौन है, क्या है? यह एक ऐसा सवाल है जो सबसे बड़ा है। वजह यह कि नीतीश कुमार को एनडीए गठबंधन के बाहर आरजेडी, कांग्रेस, लेफ्ट यानी महागठबंधन से चुनौती मिल रही है। इससे बड़ी चुनौती नीतीश कुमार को एनडीए के अंदर मिल रही है। रामविलास- चिराग पासवन की पार्टी एलजेपी से उन्हें चुनौती मिल रही है। इसी के कारण उन्हें उस जीतन राम मांझी को निकट लाना पड़ा जो नीतीश कुमार की शराब नीति के विरोध में हैं और थोड़ी-थोड़ी पिया करो की बात करते हैं। इसी बयान बहादुर जीतन राम मांझी को उन्होंने मुख्यमंत्री बनवाया था और फिर कुर्सी से हटवाया भी। जीतन राम मांझी का अपना जनाधार कैसा है यह दिख चुका है। उनकी पार्टी में वे एकमात्र विधायक हैं और एक एमएलसी हैं। एमएलसी उनके सुपुत्र ही हैं जिन्हें लालू प्रसाद ने एमएलसी बनवाया था। नीतीश कुमार को इस बात की खुशी हो सकती है कि वही मांझी अब उनकी शरण में हैं।
सच यह है कि नीतीश कुमार को सबसे ज्यादा चुनौती बीजेपी से मिल रही है। बीजेपी अपने एजेंडे पर काम करती रही और जेडीयू ने जो समझौता बीजेपी के साथ मिल कर किया था वह सब जैसे खत्म हो गया है। धारा 370, राम मंदिर और कॉमन सिविल कोड पर नीतीश कितने डटे यह दिख गया। मुस्लिम तुष्टिकरण फेल हो गया। नीतीश कुमार की लाचारी दिख रही है। कभी प्रधानमंत्री की रेस में रहने वाले अब फिर से मुख्यमंत्री के लिए दम लगा रहे हैं। उन्होंने बहुत पहले ही खुलेआम मान लिया था कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए ज्यादा काबिल हैं। इसका कारण जानना चाहते हैं तो आप लालू प्रसाद को याद कीजिए। नीतीश कुमार के मित्र रहे पूर्व एमएलसी प्रेम कुमार मणि ने एक दिन पहले अपने लाइव में कहा कि बीजेपी और जेडीयू में कोई चारित्रिक अंतर नहीं है।
इस चुनाव की सबसे बड़ी रोचकता यही है कि बीजेपी आखिरकार नीतीश कुमार के साथ कैसा व्यवहार करती है? बीजेपी के बड़े नेताओं ने यह कह दिया है कि नीतीश कुमार के ही नेतृत्व में विधान सभा चुनाव बिहार में लड़ा जाएगा। लेकिन अंदरखाने ऐसा हरगिज नहीं है। बीजेपी चाहती है कि वह जेडीयू से काफी ज्यादा सीटें लाए। एलजेपी का साारा दांव इस चाल से जुड़ा है।
राजनीतिक पार्टियों से अलग जनता के मुद्दों पर बात करें तो कुछ दिन पहले ही बेरोजगारी के सवाल पर पूरे देश में युवाओं ने थालियां बजाईँ। बिहार में पलायन का हाल लोगों ने कोरोना-काल में देखा और कितनी परेशानी झेलनी पड़ी बिहारियों को, इसको सिर्फ समझा जा सकता है। यह सरकार की नीति ही है कि बिहार में पलायन की त्रासदी है। बेरोजगारी बड़ी है और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने बताया कि साढ़े चार लाख रिक्तियां खाली पड़ी हैं बिहार में।
बिहार के लोग नौकरियों में यहां के लोगों को तरजीह देने की मांग करते रहे हैं। शिक्षक बहाली में तो सरकार ने इसे कर दिया पर असिस्टेंट प्रोफेसर बहाली में यह अब तक नहीं किया गया है। शिक्षकों की नाराजगी अभी भी इस बात को लेकर है कि सरकार उन्हें नियोजित शिक्षक ही मानती है। अफसरशाही का बिहार में कैसा हाल है यह स्पष्ट है। कुछ दिनों पहले अर्थशास्त्री शैवाल गुप्ता ने बिहार की नौकरशाही पर प्रभात खबर में बड़ा लेख लिखा था। कला पुरस्कारों की घोषणा हुई तो उसमें दो साल का पुरस्कर दो अफसरों को देकर भी सरकार ने यह दिखा दिया कि यह अफसरशाही की सरकार है। कोरोना को लेकर लोग मानते हैं कि इसमें आंकड़ों का खेल खूब हुआ। आठ-दस लोगों की मौत की खबर अंदर पेज पर और स्वस्थ होकर लौटने की खबर फ्रंट पेज पर आती रही। मीडिया मार्केटिंग का असर चुनाव पर कितना होगा यह भी देखना दिलचस्प होगा। नीतीश कुमार ने नौकरियों से हटाए जाने वालों के लिए कुछ खास नहीं कहा।
मुख्यमंत्री जो संवाद करेंगे उसका नाम दिया गया है- निश्चय। सात निश्चय नाम से योजना बिहार में पहले से चल रही है। नीतीश कुमार की खूबी क्या है, इसे भी समझिए। वर्ष 1996 में हाईकोर्ट से एक जजमेंट आया तब लालू प्रसाद का कार्यकाल था। पंचायतों में अतिपिछड़ों को आरक्षण का सवाल था, आरक्षण देने की बात हुई। तब लालू प्रसाद विरोध में सुप्रीम कोर्ट चले गए। एकल पद के नाम पर दलित को भी आरक्षण नहीं मिल पाया। 2005 में जब नीतीश सरकार आई तो नीतीश कुमार ने इसे सुप्रीम कोर्ट से वापस ले लिया। इसके बाद अतिपिछड़ों को 20 फीसदी और अनुसूचित जाति व जनजाति को 17 फीसदी आरक्षण यानी कुल 37 फीसदी आरक्षण देना तय हुआ। दलितों को एकल पदों पर आरक्षण मिला। इससे बड़े स्तर पर पॉलिटिकल इंपावरमेंट की शुरुआत बिहार में हुई। अतिपिछड़ों का बड़ा वोट बैंक नीतीश कुमार के हाथ आ गया। पंचायतों, निकायों तक में अतिपिछड़ों और दलितों को कुर्सियां मिलीं। नहीं तो सवर्णों का मुखिया राज कायम था। इसे नीतीश कुमार ने तोड़ दिया। इसलिए अतिपिछड़े इस बार भी नीतीश का साथ देंगे। दलितों के लिए एक चुनावी घोषणा नीतीश कुमार ने की कि उनकी हत्या पर एक परिजन को नौकरी देगी सरकार। इसकी खूब आलोचना हो रही है। ज्यादा आलोचना सवर्ण कर रहे हैं लेकिन नीतीश कुमार को भी मालूम है कि सवर्ण बीजेपी को ही वोट करेंगे। नीतीश कुमार, पुलों वाले मुख्यमंत्री हैं। उन्होंने पटना से लेकर बिहार के कई वैसे स्थानों पर पुल बनवाए जहां वर्षों से आवाजाही में लोगों को दिक्कत थी। नीतीश कुमार शराबबंदी के फैसले पर अडिग रहनेवाले मुख्यमंत्री हैं। लेकिन कुछ दिन पहले शराब के ठेकेदारों और पुलिस के बीच भिड़ंत ने बताया कि स्थिति कैसी है। लोग चोरी छिपे शराब की बिक्री का आरोप लगाते हैं पर सच यह है कि खुले में शराब की बिक्री और सेवन बंद है। नीतीश कुमार, लालू प्रसाद का डर दिखा कर वोट लेते रहे हैं। एक बार बीजेपी का डर भी दिखाया और लालू प्रसाद के साथ मिलकर सत्ता में आ गए। फिर साथ छोड़ भी दिया। कोरोना काल में नीतीश कुमार पर आरोप लगे कि वे बीजेपी कोटे के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय को हटाने का दम नहीं रखते। यही हुआ भी। उन्होंने स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव संजय कुमार का विभाग बदला पर मंगल पांडेय को छू न सके। अब के नीतीश वे नीतीश नहीं हैं जिन्होंने एक दिन में बीजेपी के सारे मंत्रियों को बिहार में बर्खास्त कर दिया था। तो फिर नीतीश कुमार के वोट बैंक कौन हैं? नीतीश कुमार को महिलाएं, दलित और अतिपिछड़े ही फिर से सत्ता तक पहुंचा सकते हैं। यादव वोट बैंक या आरजेडी से मिलने वाली इस चुनौती के जवाब में उनके पास यही ताकत है।