संवाददाता. पटना

बिहार नीति विमर्श संवाद के तहत आयोजित शिक्षा सम्मेलन में नई शिक्षा नीति 2020 के खतरों पर गहन विमर्श
“बिहार नीति विमर्श संवाद” की श्रृंखला में 25 मई को पटना के ए.एन. सिन्हा संस्थान में आयोजित शिक्षा सम्मेलन में देशभर के प्रख्यात शिक्षाविदों, नीति-विश्लेषकों, राजनीतिक नेताओं और छात्रों ने भाग लिया। यह सम्मेलन “नई शिक्षा नीति 2020 का बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर कुप्रभाव” विषय पर केंद्रित था। आयोजन का उद्देश्य नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP-2020) के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक असर को बिहार की जमीनी हकीकत के आलोक में समझना और राज्य-विशिष्ट समाधान तलाशना रहा।
कर्नाटक के शिक्षा मंत्री डॉ. एम.सी. सुधाकर ने अपने संबोधन में बताया कि किस प्रकार कर्नाटक भारत का पहला राज्य बना जिसे केंद्र की भाजपा सरकार ने वर्ष 2021 में नई शिक्षा नीति (NEP) लागू करने के लिए बाध्य किया। लेकिन वही कर्नाटक अब देश का पहला राज्य बन गया है जिसने इस नीति की खामियों को वास्तविक अनुभव से पहचाना और इसे राज्य की ज़मीनी ज़रूरतों के अनुकूल ढालने का निर्णय लिया। उन्होंने बताया कि इस प्रक्रिया में कर्नाटक सरकार ने देशभर के प्रख्यात शिक्षाविदों, नीति-विशेषज्ञों और विश्वविद्यालयों से संवाद किया, जिसमें बिहार के दो प्रमुख शिक्षाविद – डॉ. सुधांशु भूषण और डॉ. मनीषा प्रियंवद को भी विशेष रूप से आमंत्रित किया गया। डॉ. सुधाकर ने बताया कि कर्नाटक सरकार ने निजी कॉलेजों में वंचित तबकों के छात्रों के लिए आरक्षित सीटों की व्यवस्था की है और उन्हें सब्सिडी वाले शुल्क पर शिक्षा उपलब्ध कराई जा रही है। साथ ही, उन्होंने यह भी साझा किया कि राज्य सरकार ने BBA सप्लाई चेन, BBA लॉजिस्टिक्स जैसे समसामयिक और रोजगारोन्मुखी पाठ्यक्रमों की शुरुआत की है, जिससे छात्रों को स्थानीय और वैश्विक बाज़ार की जरूरतों के अनुसार कौशल प्राप्त हो सके। यह सभी प्रयास कर्नाटक सरकार की एक समावेशी, न्यायसंगत और व्यावहारिक शिक्षा नीति गढ़ने की प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं।
सांसद सुधाकर सिंह ने सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए कहा, “नई शिक्षा नौति संविधान के समाजवादी आदर्शों के खिलाफ जाकर शिक्षा को ऋण और शुल्क के बोझ से ढकने की दिशा में बढ़ रही है। बिहार जैसे राज्य, जहां 34% परिवार ₹6,000 से कम मासिक आय पर गुजर-बसर करते हैं, के लिए यह नीति शिक्षा के दरवाजे बंद करने वाली साबित हो सकती है।”
सुधाकर सिंह ने बिहार में शिक्षा व्यवस्था की ऐतिहासिक उपेक्षा और नई शिक्षा नीति 2020 के खिलाफ एक सशक्त वैचारिक प्रतिरोध खड़ा करने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने कहा कि संसद से लेकर जनता के बीच, शिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दों को उठाना उनका दायित्व है और उन्होंने इसे एक आंदोलन की तरह लिया है। सुधाकर सिंह ने बताया कि किस तरह नई शिक्षा नीति को एक ऐसी डिजाइन में ढाला गया है जिसमें व्यक्तित्व विकास, समावेशिता और सवाल करने की शक्ति को दबाने का प्रयास हो रहा है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह नीति ‘ज्ञान’ और ‘जिज्ञासा’ के विरुद्ध खड़ी है, और उच्च शिक्षा को ऋण, शुल्क और निजीकरण के दबाव में समेटने की दिशा में ले जा रही है।
उन्होंने उदाहरण दिया कि नई नीति के तहत एक ही प्रोफेसर पढ़ाने वाला, प्रश्नपत्र बनाने वाला और मूल्यांकन करने वाला होगा, जिससे वैचारिक विविधता और मूल्यांकन की निष्पक्षता खत्म हो जाएगी। उन्होंने कहा कि शिक्षा व्यवस्था का यह केंद्रीकरण विचारधारात्मक विविधता को कुचल देगा और दलित-पिछड़े वर्ग के छात्रों के लिए अवसर सीमित हो जाएंगे। सुधाकर सिंह ने यह भी रेखांकित किया कि आज भी बिहार के अधिकांश स्कूलों में पर्याप्त कमरे, शिक्षक या आधारभूत सुविधाएँ नहीं हैं- एक ही भवन में पाँच-पाँच स्कूल संचालित हो रहे हैं, एक ही शिक्षक पाँच कक्षाओं को पढ़ा रहे हैं।
उन्होंने बिहार में 5 लाख शिक्षकों की बहाली की ऐतिहासिक पहल की चर्चा की और कहा कि जब तक बिहार को विशेष राज्य का दर्जा या पर्याप्त वित्तीय सहयोग नहीं मिलेगा, तब तक शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में न्याय नहीं हो सकता। उन्होंने केंद्र सरकार से यह सवाल उठाया कि अगर प्रधानमंत्री बिहार को लाखों करोड़ की योजनाओं का वादा कर सकते हैं, तो क्यों न 50,000 करोड़ रुपये देकर यहाँ दस केंद्रीय विश्वविद्यालय, पाँच एम्स, और पर्याप्त संस्थान खोले जाएं? अपने संबोधन के अंत में उन्होंने यह कहा कि शिक्षा के सवाल को केवल नीतिगत नहीं, बल्कि वैचारिक, सामाजिक और आर्थिक संघर्ष के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि जब संविधान हमें शिक्षा का अधिकार देता है, तब सरकार द्वारा उस अधिकार को ऋण और निजीकरण में बदल देना लोकतंत्र पर आघात है।
सम्मेलन में बोलते हुए वरिष्ठ अर्थशास्त्री प्रोफेसर प्रभात पटनायक ने शिक्षा नीति और व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों के बीच की कड़ी पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि बिहार जैसे राज्य में नई शिक्षा नीति के प्रभाव को समझने के लिए हमें कृषि और विनिर्माण क्षेत्र में आई गिरावट, वैज्ञानिक सोच में आई रुकावट और सामाजिक सेक्युलर सहमति के विघटन को साथ-साथ देखना होगा। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा केवल करियर गढ़ने का साधन नहीं, बल्कि बच्चों के भीतर रचनात्मकता, जिज्ञासा और सामाजिक जिम्मेदारी को विकसित करने का अवसर होनी चाहिए। उन्होंने प्रसिद्ध कलाकार पिकासो को उद्धृत करते हुए कहा कि हर बच्चा जन्मजात कलाकार होता है शिक्षा व्यवस्था का कर्तव्य है कि वह इस रचनात्मकता को संरक्षित करे, न कि उसे कुचले।
प्रोफेसर पटनायक ने यह भी कहा कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम की वैकल्पिक व्याख्याएं, जिन्हें भारतीय इतिहासकारों ने ‘Towards Freedom’ जैसी श्रृंखलाओं में प्रस्तुत किया, आज के दौर में और भी महत्वपूर्ण हो जाती हैं। उन्होंने यह चेताया कि जो समस्याएँ पूंजीवादी समाजों में बड़े पैमाने पर विस्थापन के4 ज़रिये कुछ हद तक नियंत्रित की गईं, वे विकल्प भारत जैसे समाजों के पास नहीं हैं इसलिए हमें सामाजिक समस्याओं का समाधान यहीं खोजना होगा। बेरोजगारी, जातीय अन्याय और सांस्कृतिक बहिष्कार जैसे मुद्दे आज उन समुदायों को सबसे अधिक प्रभावित कर रहे हैं जो पहले से ही हाशिये पर हैं। ऐसे में, उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि “सामाजिक परिवर्तन” के लिए एक ठोस कार्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए जो लोगों को आश्वस्त कर सके कि शिक्षा उन्हें केवल ज्ञान नहीं, बल्कि गरिमा और अवसर भी प्रदान करेगी।
उन्होंने बिहार में 5 लाख शिक्षकों की बहाली की ऐतिहासिक पहल की चर्चा की और कहा कि जब तक बिहार को विशेष राज्य का दर्जा या पर्याप्त वित्तीय सहयोग नहीं मिलेगा, तब तक शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में न्याय नहीं हो सकता। उन्होंने केंद्र सरकार से यह सवाल उठाया कि अगर प्रधानमंत्री बिहार को लाखों करोड़ की योजनाओं का वादा कर सकते हैं, तो क्यों न 50,000 करोड़ रुपये देकर यहाँ दस केंद्रीय विश्वविद्यालय, पाँच एम्स, और पर्याप्त संस्थान खोले जाएं?
अपने संबोधन के अंत में उन्होंने यह कहा कि शिक्षा के सवाल को केवल नीतिगत नहीं, बल्कि वैचारिक, सामाजिक और आर्थिक संघर्ष के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि जब संविधान हमें शिक्षा का अधिकार देता है, तब सरकार द्वारा उस अधिकार को ऋण और निजीकरण में बदल देना लोकतंत्र पर आघात है
सम्मेलन में बोलते हुए वरिष्ठ अर्थशास्त्री प्रोफेसर प्रभात पटनायक ने शिक्षा नीति और व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों के बीच की कड़ी पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि बिहार जैसे राज्य में नई शिक्षा नीति के प्रभाव को समझने के लिए हमें कृषि और विनिर्माण क्षेत्र में आई गिरावट, वैज्ञानिक सोच में आई रुकावट और सामाजिक सेक्युलर सहमति के विघटन को साथ-साथ देखना होगा। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा केवल करियर गढ़ने का साधन नहीं, बल्कि बच्चों के भीतर रचनात्मकता, जिज्ञासा और सामाजिक जिम्मेदारी को विकसित करने का अवसर होनी चाहिए। उन्होंने प्रसिद्ध कलाकार पिकासो को उद्धृत करते हुए कहा कि हर बच्चा जन्मजात कलाकार होता है शिक्षा व्यवस्था का कर्तव्य है कि वह इस रचनात्मकता को संरक्षित करे, न कि उसे कुचले।
प्रोफेसर पटनायक ने यह भी कहा कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम की वैकल्पिक व्याख्याएं, जिन्हें भारतीय इतिहासकारों ने ‘Towards Freedom’ जैसी श्रृंखलाओं में प्रस्तुत किया, आज के दौर में और भी महत्वपूर्ण हो जाती हैं। उन्होंने यह चेताया कि जो समस्याएँ पूंजीवादी समाजों में बड़े पैमाने पर विस्थापन के ज़रिये कुछ हद तक नियंत्रित की गईं, ये विकल्प भारत जैसे समाजों के पास नहीं हैं इसलिए हमें सामाजिक समस्याओं का समाधान यहीं खोजना होगा। बेरोजगारी, जातीय अन्याय और सांस्कृतिक बहिष्कार जैसे मुद्दे आज उन समुदायों को सबसे अधिक प्रभावित कर रहे हैं जो पहले से ही हाशिये पर हैं। ऐसे में, उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि “सामाजिक परिवर्तन” के लिए एक ठोस कार्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए जो लोगों को आश्वस्त कर सके कि शिक्षा उन्हें केवल ज्ञान नहीं, बल्कि गरिमा और अवसर भी प्रदान करेगी।
मुख्य निष्कर्ष और चिंता के विषयः
बिहार अपने बजट का 21.7% हिस्सा शिक्षा पर खर्च करता है, जो ₹60,954 करोड़ (2025-26) के बराबर है, और यह देश के राज्यों में उच्चतम में से एक है। इसके बावजूद, ASER 2024 की रिपोर्ट बताती है कि कक्षा 3 के केवल 20.1% छात्र कक्षा 2 का पाठ समझ पाते हैं और कक्षा 5 के 67.5% छात्र साधारण गणितीय विभाजन नहीं कर सकते। उच्च शिक्षा के स्तर पर स्थिति और भी चिंताजनक है: राज्य का GER मात्र 17.1% है, जबकि राष्ट्रीय औसत 28.4% है। केवल 6% वयस्क स्नातक हैंऔर प्रति लाख युवाओं पर केवल 7 कॉलेज हैं जो देश में न्यूनतम है।
NEP-2020 में HEFA और PM-USHA जैसी ऋण योजनाओं के माध्यम से विश्वविद्यालयों को अपना पूंजीगत व्यय स्वयं वहन करने के लिए प्रेरित किया गया है। इन ऋणों की अदायगी “आंतरिक राजस्व” यानी फीस, कॉर्पोरेट साझेदारी या सेवाओं की बिक्री से करनी होगी। वक्ताओं ने चेतावनी दी कि इससे सार्वजनिक विश्वविद्यालयों पर फीस बढ़ाने का भारी दबाव पड़ेगा, जिससे वंचित वर्गों के लिए शिक्षा और भी दुर्गम हो जाएगी।
सम्मेलन में यह भी बताया गया कि बिहार की अधिकांश उच्च शिक्षा व्यवस्था 1,400 से अधिक ग्रामीण, एकल-पाठ्यक्रम कॉलेजों पर टिकी है। NEP के तहत प्रस्तावित “मल्टीडिसिप्लिनरी विश्वविद्यालय” मॉडल इन संस्थानों के लिए न तो व्यावहारिक है और न ही वित्तीय रूप से संभव। इसके अतिरिक्त, ग्रामीण बिहार में इंटरनेट पहुंच 40% से कम है, ऐसे में डिजिटल शिक्षा और क्रेडिट बैंक जैसे विचार लागू कर पाना अत्यंत चुनौतीपूर्ण है।
NEP-2020 में HEFA और PM-USHA जैसी ऋण योजनाओं के माध्यम से विश्वविद्यालयों को अपना पूंजीगत व्यय स्वयं वहन करने के लिए प्रेरित किया गया है। इन ऋणों की अदायगी “आंतरिक राजस्व” यानी फीस, कॉर्पोरेट साझेदारी या सेवाओं की बिक्री से करनी होगी। वक्ताओं ने चेतावनी दी कि इससे सार्वजनिक विश्वविद्यालयों पर फीस बढ़ाने का भारी दबाव पड़ेगा, जिससे वंचित वर्गों के लिए शिक्षा और भी दुर्गम हो जाएगी।
सम्मेलन में यह भी बताया गया कि बिहार की अधिकांश उच्च शिक्षा व्यवस्था 1,400 से अधिक ग्रामीण, एकल-पाठ्यक्रम कॉलेजों पर टिकी है। NEP के तहत प्रस्तावित “मल्टीडिसिप्लिनरी विश्वविद्यालय” मॉडल इन संस्थानों के लिए न तो व्यावहारिक है और न ही वित्तीय रूप से संभव। इसके अतिरिक्त, ग्रामीण बिहार में इंटरनेट पहुंच 40% से कम है, ऐसे में डिजिटल शिक्षा और क्रेडिट बैंक जैसे विचार लागू कर पाना अत्यंत चुनौतीपूर्ण है।
राजनीतिक दलों का संयुक्त स्वरः
सम्मेलन में विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने एक सुर में कहा कि NEP को लागू करने से पूर्व राज्यस्तरीय संवाद, संसदीय चर्चा और शिक्षा से जुड़े सभी हितधारकों की भागीदारी आवश्यक है। सीपीआई (माले) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य, कांग्रेस विधायक दल के नेता शकील अहमद खान, और राजद के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रो. सुबोध मेहता ने कहा कि अगर NEP की मूल संरचना नहीं बदली गई, तो यह भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त समानता और समावेशन के सिद्धांतों को कमजोर कर देगी।
आगे की राहः
सम्मेलन में सर्वसम्मति से यह मांग उठी कि बिहार को केंद्र द्वारा थोपे गए एकरूप पाठ्यक्रम और ऋण आधारित वित्तीय मॉडल को स्वीकार करने से पूर्व व्यापक विचार-विमर्श और वैकल्पिक नीति निर्माण की दिशा में पहल करनी चाहिए। यह तय किया गया कि “बिहार नीति विमर्श संवाद” की आगामी श्रृंखला में व्यावसायिक शिक्षा, डिजिटल खाई, और संस्थागत स्वायत्तता जैसे विषयों पर भी केंद्रित चर्चा की जाएगी।
प्रमुख वक्ताओं की सूची:
1.सुधाकर सिंह सांसद, बक्सर लोकसभा
2. डॉ. एम.सी. सुधाकर उच्च शिक्षा मंत्री, कर्नाटक सरकार
3. दीपांकर भट्टाचार्य राष्ट्रीय महासचिव, भाकपा (माले)
4. शकील अहमद खान नेता विधायक दल, कांग्रेस पार्टी
5. प्रो. सुबोध कुमार मेहता राष्ट्रीय प्रवक्ता, राष्ट्रीय जनता दल
6. शाश्वत गौतम महासचिव, बिहार प्रदेश, RJD
7. डॉ. प्रभात पटनायक वरिष्ठ अर्थशास्त्री, JNU
8. प्रो. विद्यार्थी विकास, ए.एन. सिंहा संस्थान

