- ओपिनियन -प्रेमकुमार मणि
मेरे भाव गड्डमड हुए जा रहे हैं और जुबान अराजक . हमने सुकरात के बारे में केवल सुना और पढ़ा कि कैसे उन्होंने सच बोलने की सजा जहर का प्याला पीकर पायी थी ; वह झुके नहीं थे . 1917 के चम्पारण सत्याग्रह में गाँधी ने जिला बदर के आदेश को इंकार कर दिया था और जमानत लेने के बजाय जेल जाना पसंद किया था .
“मैंने सरकार की आज्ञा की अवहेलना इसलिए नहीं की है कि मुझे सरकार के प्रति श्रद्धा नहीं है ,वरन इस कारण की है कि मैंने उस से भी उच्चतर आज्ञा –अपनी विवेक-बुद्धि की आज्ञा — का पालन करना उचित समझा है “
(अदालत में गाँधी का बयान )
तब ,अंग्रेजी सरकार झुक गई थी . उसने ऐसा कर के स्वयं को गौरवान्वित ही किया था . क्या आज उस से कमतर मूल्यों के ज़माने में हम जी रहे है ? जिस ट्वीट के लिए जज साहब को प्रशांत भूषण को शुक्रिया कहना चाहिए था , उसे वह अपनी तौहीन समझ रहे हैं ! अवमानना कह रहे हैं .
लेकिन शाबाश प्रशांत भूषण ! पतन के इस दौर में मनुष्यता और उसकी अस्मिता को आपने हौले से रेखांकित कर दिया है . तुझे दिल से सलाम !
तुम्हारे एक संवाद ने भारत के एक अदना नागरिक की मर्यादा को बहुत ऊँचा कर दिया है . अभिव्यक्ति की आज़ादी की गरिमा को तुम ने नया आयाम दिया है ,प्रतिष्ठित किया है . जनतंत्र की आत्मा,जिसे मैं केन्द्रक कहना चाहूंगा, को तुम ने बचा लिया है . विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका होगी अहम संस्थाएं ; लेकिन एक नागरिक की मर्यादा उन सब से ऊँची है . न्यायपालिका भारत के नागरिकों के लिए है ,न कि भारत के नागरिक न्यायपालिका के लिए .
” मैं दया के लिए नहीं कहूँगा, अदालत जो भी सजा देगी ,उसे सहर्ष स्वीकार करूँगा . “
और कि
” एक नागरिक के तौर पर सब से बड़ी जिम्मेदारी को निभाने की छोटी -सी कोशिश की है . “
तुम ने मुआफी मांगने से इंकार कर के बतला दिया कि पुरोहित की आलोचना ईश्वर की आलोचना नहीं होती . आलोचना किसी भी सभ्य समाज के लिए आवश्यक होते हैं . ठीक वैसे ही आलोचना के लिए दंड एक आदिम बर्बर समाज की याद दिलाती है .
यह दो दिन का समय न्यायालय के लिए महत्वपूर्ण है . एक नागरिक के तौर पर मैं जजों से अनुरोध करूँगा कि वे भारत की जनता से मुआफी माँगे और अपना कद इतना ऊँचा कर लें कि हम उन्हें माननीय कह सकें . हम अपनी न्यायपालिका को दिल से सम्मान करना चाहते हैं , उसे लेकर शर्मिंदगी का एहसास नहीं करना चाहते .